भूमिका-किसी कवि ने ठीक ही कहा 'है अपना हिन्दुस्तान कहाँ, वह बसा हमारे गाँवों में'। भारत माता ग्रामवासिनी है भारत की 75 प्रतिशत जनता गाँवों में निवास करती है। इसीलिए भारत को गाँवों का देश कहा जाता है। गाँव ही भारत की आत्मा है, भारतीय जीवन के दर्पण हैं और भारतीय संस्कृति के परिचायक हैं। जिस प्रकार आत्मा की स्वस्थ स्थिति पर सारे शरीर की उन्नति निर्भर होती है, उसी प्रकार भारत की उन्नति उसके गाँवों की उन्नति पर निर्भर है। इसीलिए गाँधी जी कहा करते थे कि भारत का हृदय गाँवों में निवास करता है।
गाँवों की सुषमा-भारतीय गाँव प्रकृति की मुक्त क्रीड़ास्थली हैं। प्रकृति की छटा वहाँ चारों ओर बिखरी रहती है तथा प्राकृतिक सुषमा देखते ही बनती है। भारत में लगभग छः लाख गाँव हैं। इसके अनुपात में शहरों की संख्या नगण्य है। इन्हीं गाँवों में सेवा और परिश्रम के अवतार तथा जन-जन के अन्नदाता किसान बसते हैं। नगरों की कृत्रिम शोभा तो मनुष्य की उपज है जबकि गाँवों का नैसर्गिक सौन्दर्य की रचना स्वयं भगवान ने की है।
आज के गाँव-एक समय था जब भारत के गाँव आत्म-निर्भर तथा सम्पन्न थे। वहाँ की धरती सोना उगलती थी तथा चारों ओर सुख-समृद्धि थी। परन्तु आज गाँवों की वह दशा नहीं है। आज वे अभावग्रस्त हैं, दरिद्रता की साक्षात् प्रतिमा हैं तथा अज्ञान, अशिक्षा, रोग एवं अभावों के घर हैं। आज के गाँवों में जीवन के लिए आवश्यक सुख-सुविधाओं का भी अभाव है जिनके कारण अनेक ग्रामीण शहरों की ओर पलायन करते हैं तथा शहरों पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता जा रहा है। गाँवों में स्वास्थ्य सेवाओं का भी नितांत अभाव है।
ग्रामों की वर्तमान दुर्दशा के कारण-भारत के गाँवों की वर्तमान दशा के लिए अंग्रेजी शासन उत्तरदायी है। अंग्रेजों के शोषण के कारण भारतीय कृषि की दशा बिगड़ती चली गई तथा वहाँ के कुटीर उद्योग भी शनैः शनैः नष्ट हो गए। जमीदारों और साहूकारों ने किसानों का खूब आर्थिक शोषण किया जिससे किसानों का जीवन अत्यंत शोचनीय बन गया। गाँवों की दुर्दशा के लिए अशिक्षा तथा अज्ञान भी उत्तरदायी हैं। भारत के किसान आज भी अंध-विश्वासों की दल-दल में फँसे हुए हैं। मुकदमेबाजी, विवाह, मुंडन जैसे उत्सवों पर अनावश्यक धन खर्च करना तथा ऐसी ही अनेक बुराइयों के कारण किसानों को सेठ-साहूकारों से ऋण लेना पड़ता है जो जीवन भर नहीं उतरता तथा उनकी दरिद्रता का कारण बन जाता है। दरिद्रता के कारण न तो वह अच्छे हल-बैल जुटा पाता है और न ही अच्छे बीज और खाद ।
भारतीय वर्षा का खिलवाड़ भारतीय वर्षा भी किसानों के जीवन से खिलवाड़ करने में पीछे नहीं रहती। कभी समय से पूर्व वर्षा, तो कभी अति दृष्टि और कभी अनावृष्टि। जिसके कारण देश के अधिकांश भागों में या तो सूखे की स्थिति बनी रहती है या फिर खड़ी फसलें बाढ़ों के कारण चौपट हो जाती हैं।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद गाँवों में सुधार-स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने गाँवों की उन्नति पर विशेष ध्यान दिया तथा किसानों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण उपाए किए। गाँवों में सहकारी समितियाँ तथा बैंक स्थापित किए गए जिससे कि किसानों को कम दर पर ऋण उपलब्ध हो सके। जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया तथा खेतों की चकबंदी तथा सीमा निर्धारित कर दी गई। गाँवों में नए-नए किस्म के बीज-उपकरण तथा खाद आदि का वितरण करवाने के लिए सामुदायिक विकास योजनाएँ प्रारंभ कीं। हर्ष का विषय है कि भारत में सरकारी प्रयासों के कारण हरित क्रांति हो रही है तथा एक नए युग का सूत्रपात हो रहा है। क्या तो हम खाद्यान्नों के लिए विदेशी सहायता पर आश्रित थे, क्या अब हम विदेशों को निर्यात भी कर रहे हैं। आज गाँवों में शिक्षा, चिकित्सा तथा मनोरंजन की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा रहीं हैं तथा वहाँ पीने के पानी, सड़कों तथा बिजली की पर्याप्त व्यवस्था की गई है।
उपसंहार-भारतीय ग्राम्य जीवन, जो कालांतर में एक दयनीय स्थिति में पहुँच गया था, अब पुनः आकर्षक बनता नजर आ रहा है। गाँवों की दशा सुधारने के लिए केवल सरकारी उपाय ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए ग्रामीण युवा वर्ग को आगे आना होगा। उन्हें शहरों की ओर पलायन की प्रवृत्ति का त्यागकर गाँवों में ही कुटीर उद्योग लगाकर उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। ग्राम्य जीवन की आधारशिला शिक्षा तथा स्वास्थ्य है। ग्रामीण भाइयों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को विद्यालय में भेजें तथा उन्हें शिक्षित करें। ग्रामवासियों को प्राचीन रूढ़ियों, कुसंस्कारों, कुरीतियों तथा कुप्रथाओं का सर्वथा त्याग करना होगा, तभी वे उन्नति कर सकते हैं। यदि दृढ़ता इच्छा शक्ति तथा स्वावलंबन के बल पर भारत का ग्रामीण कृत संकल्प हो जाए तो वह दिन दूर नहीं जब कवि की यह उक्ति सही जान पड़ेगी 'अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका जी चाहे।'